Sunday, March 8, 2009


दिन ढल गया, शाम सुहानी आई,
साथ अपने, उम्मीद की लहर लाई;
एक लड़की को था इंतजार किसी अपने का,
मन था बेचैन, सब्र का इम्तेहान था...


वर्षा की पहली बूँद जो उसके अंगने आई,
इंतजार की एक अनोखी रुत लाई;
टिप-टिप बरसती बूंदों का कुछ ऐसा था अहसास,
मानो, आसमान ने छेड़ा हो कोई राग...


फिर...
नज़रें ढूँढती रहीं,
जाने कब रात हो गई,
पर जिसकी राह तकि वह ना आया,
तो लगा,
जाने क्यों बिन मौसम बरसात हुई?


सपनों के मोती बिखरें कुछ इस कदर,
के अँधेरा छा गया हर डगर;
अश्क लाख छिपाएं छिपें नहीं,
दिल में थी कश्मकश, पलकों पे नमी...


जब देखा फिर उन बूँदों की ओर,
तो संगीत लगने लगा शोर;
गम का साया लाए वो बादल,
जैसे ओढ़ ली थी ज़िन्दगी ने तन्हाई की चादर...


तब...
खामोशी भी कुछ खास कह गई...
कह गई एक अनमोल बात;
के ज़िन्दगी यूही चलती है,
आशाएं बिखरती हैं, टूटते हैं ख्वाब;
पर जन्नत होती है सबके नसीब में,
गर हो मन में विशवास...


तब वह पगली लड़की
लगी समेटने अपने बिखरे सपने,
बुनने माला एक नई कहानी की...


सो गई वह मुस्कुराते हुए,
रखके कुछ नए ख्वाब सिरहाने...

2 comments:

  1. jab soch ko shabdo me dhalte ho,
    jab chti si bhavna ko kavita me sawarte ho,
    man khush ho jata hai, dil me uska khayal aa jata hai...

    bht khoob... nice piece of work

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  2. thanks, bhu1.. :)
    n keep commenting! :)

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